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29 Sep 2016 · 1 min read

ग़ज़ल ”……..पुरानी दास्ताँ जो दरमियाँ..”

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ग़लतफ़हमी हार जायेगी मियाँ
दोस्ती जीतेगी सारी बाजियाँ।

उन तलक फिर भी गयी न बात वो
थी पुरानी दास्ताँ जो दरमियाँ

मिल गया होता खुदा गर आज तो
कह नहीं पाता चंद फ़क़त अर्जियाँ

रो रहा हूँ शाम से सुबहो तलक
दे रही है हौसला अफजाईयाँ

गो सुकूँ ऐसा मरहम लगा दिया
उफ़ जवानी की ज़ख्मी गुस्ताखियाँ

ये जवाब सवाल का उसने दिया
चुप रही है बहुत सी मजबूरियाँ

इक झलक से शांत हो जाता बंटी
है नसीबन हाय मुकर्रर दूरियाँ
———————————–
रजिंदर सिंह ”छाबड़ा ”

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