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6 Oct 2017 · 1 min read

ग़ज़ल।यकीं मानो मुहब्बत की सभी क़ीमत चुकाते है ।

================ग़ज़ल=================

यकीं मानो मुहब्बत की सभी क़ीमत चुकाते हैं ।
नफ़ासत का ज़ख़म पाकर ग़मों मे मुस्कुराते है ।

सुना होगा दिवानों के पुराने क़हक़हे तुमने ।
हमारे दर्द के नग़में सुनो हम भी सुनाते हैं ।

सुबह सूरज के ही सँग मे बढ़ी तनहाइयाँ आती ।
अंधेरों मे जला दिल को अश्क़ों से बुझाते हैं ।

शमा भर तो दग़ा देती रही खामोशियाँ मेरी ।
हुई जो रात तारों से वो आँसू टिमटिमाते है ।

अंधेरा देखना हो तो हमारे घर चले आना ।
चराग़ों रौशनी को ख़ुद तरसते हैं बुझाते हैं ।

वही ग़म है ,वही गर्दिश, वही तन्हा ख़फ़ाई फ़िर ।
वही मंज़र ग़मो के घर मेरे मजलिस लगाते है ।

गमों के ज़लज़लों मे है घरौंदा प्यार का रकमिश ।
शमा होते ढहा करता सुबह फिर से बनाते हैं ।

✍ #रकमिश सुल्तानपुरी

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