हम गुलामी की जानिब है जाने लगे
ग़ज़ल
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प्यार को वो मेरे आज़माने लगे
देख कर बेबसी मुस्कुराने लगे
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बाँध हमको बहन रेशमी डोर से
हाथ तेरी तरफ हम बढ़ाने लगे
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जल पड़ा था ज़माना सनम उस घड़ी
इश्के़ दरया में जब हम नहाने लगे
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देख हालत वतन की हमें लग रहा
हम गुलामी की ज़ानिब हैं जाने लगे
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जख़्म नासूर बनके उभरने लगा
क़ल्ब में दर्द डेरा जमाने लगे
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हक़बयानी नहीं कोई करता यहाँ
झूठ पर लोग पर्दा गिराने लगे
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तेरी नज़रों की ये तो क़रामात थी
थोड़ी सी ही जो पी डगमगाने लगे
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हौसला जब परिन्दों ने की उड़ने की
पर क़तर के वो उनको उड़ाने लगे
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चोट दिल पर मेरे जब ज़फ़ा का पड़ा
अक़्ल तब जाके मेरे ठिकाने लगे
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एक पल में समझ सब गये आप हो
जो समझने में सबको ज़माने लगे
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हो गई मेरी तस्क़ीन “प्रीतम” तभी
जब मुहब्बत वो हमपे लुटाने लगे
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प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)
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