स्वतंत्रता की अभिलाषा (कविता)
स्वतंत्रता की चाह
सोचती हूँ मैं कभी एकांत में,
कब स्वतंत्र होयुंगी दुनिया के झमेले सेें।
अभी तक तो पराधीन ही हूँ मैं,
और हाथ-पांव बंधे है सलाखों से।
कभी कहा था किसी मार्क्स ने,
के मनुष्य जन्म से तो स्वतंत्र है।
मगर समाज की बेड़ियाँ उसे बांध देती हैं।
कभी सदियों पुरानी सड़ी हुई कुरीतियाँ ,
तो कभी कुत्सित मानसिकता रास्ता रोकती है।
इस संसार में समाज ही सबकुछ है क्या ?
अपना कोई आधार है ही नहीं ।
ले चल रे मन मुझे उसी क्षितिज पर ,
जहाँ कोई किसी प्रकार का बंधन हो ही नहीं ।