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11 Feb 2017 · 1 min read

समझ बैठा था बुत लेकिन….

झुकी थी जो अभी तक, वह निगाहें खेलती सी है l
समझ बैठा था बुत लेकिन ,जुबा भी बोलती सी है ll

खड़ी ऊंची हवेली जो, बहुत कुछ कह रही जग से l
घरों की बंद जो खिड़की, कहानी खोलती सी है ll

मिटाने में लगे एक पल, उसे हस्ती समंदर की l
तेरी औकात हे शबनम ,सुबह भी तोलती सी है ll

समय का खेल है ऐसा, पड़ा है खेलना सब को l
उठाओ हाथ देखो भी ,लकीरें बोलती सी हैं ll

रखो तुम राज सब अपने, दबा वक्त की किताबों में l
सवालों की फसल फिर ए हवाएं रोपती सी है ll

बचा रखा “सलिल” हमने बिखरने से ज़माने को l
कहीं आए ना फिर तूफा ए बातें चीरती सी है ll

संजय सिंह “सलिल”
प्रतापगढ़ ,उत्तर प्रदेश l

1 Comment · 464 Views
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