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2 Feb 2017 · 1 min read

शाम डरते हुए

बेशर्म की कलम से

शाम डरते हुए

रोज कितने मुख़ौटे लगाता हूँ मैं।
हर रिश्ते को दिल से निभाता हूँ मैं।।

तुम जिन्हें चाँद तारे या सूरज कहो।
उनको शाला में नित ही पढ़ाता हूँ मैं।।

पूछते लोग खुशबू ये कैसी कहो।
तेरी यादों से अक्सर नहाता हूँ मैं।।

शेर बनकर फिरूँ सारे जग में मगर।
शाम डरते हुए घर को आता हूँ मैं।।

कहने को बेशरम हूँ मगर जाने क्यों।
बेसबब याद सबको ही आता हूँ मैं।।

विजय नामदेव “बेशर्म”
गाडरवारा मप्र
09424750038

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