Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
12 Mar 2017 · 5 min read

लौटना होगा प्रकृति की ओर

“लौटना होगा प्रकृति की ओर”
——————–

“होली” शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘होलक्का’ शब्द से हुई है | वैदिक युगीन ‘होलक्का’ शब्द एक विशेष अन्न के लिए प्रयुक्त होता था ,जो उस समय होलिका-दहन में देवों को भोग लगाने में डाला जाता था | “होली ” भारतीय परम्परा के अनुसार वसंत ऋतु में फाल्गुन माह की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला लोकप्रिय और प्राचीनतम त्योहार है ,जिसे वैदिक काल में ‘ नवात्रेष्टि यज्ञ’ कहा जाता था | चूँकि होली के त्योहार की शुरूआत कब ? कैसे ? क्यों हुई ? ये बताना कठिन ही नहीं बल्कि नामुमकिन भी है | लेकिन इसके क्षेत्रीय एवं कालिक स्वरूप पर दृष्टिपात किया जाए तो हम कह सकते है कि होली का स्वरूप बहुत ही विविधतापूर्ण और शानदार रहा है ,जो न केवल आनन्द एवं मनोरंजन की दृष्टि से बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक-ऐतिहासिक-मनोवैज्ञानिक-भौगोलिक विविधताओं को भी पूर्ण रूप से समाहित किए हुए है | यदि हम होली के 500 वर्षों के इतिहास को देखे तो यह उजागर होता है कि भारतीय संस्कृति के स्वर्णिम साहित्य , इतिहास ,कला एवं संस्कृति सदैव बेजोड़ रही है | हम भक्तिकालीन होली पर विचार करें तो यह सुनिश्चित होता है कि – भक्तिकालीन संत, कवियों, साहित्यकारों, इतिहासकारों ने तात्कालीन जनसमुदाय में प्रचलित होली के त्योहार की गरिमा, उल्लास, मंनोरंजन , प्रकार और आनन्दमय अनुभूतियों का विशिष्ट उल्लेख किया है | होली के इस बहुआयामी विवरण को न केवल सूरदास , नंददास , कबीरदास , केशवदास, तुलसीदास , मीराबाई ,घनानंद, पद्माकर और विद्यापति जैसे मूर्धन्य हिन्दी कवियों ने बल्कि कालिदास,भारवि ,माघ जैसे संस्कृत विद्वानों और महजूर , नजीर , कुतुबशाह , हातिम , मीर , ,इंसा जैसे उर्दू शायरों ने भी बड़े ही रोचक और शानदार अभिव्यक्ति प्रदान की है | भारतीय इतिहास के मुगल काल ,मराठाकाल ,औपनिवेशिक काल में होली का त्योहार बड़ी ही धूमधाम से साम्प्रदायिक सौहार्द्र के रूप में मनाया जाता था | मुगलकालीन शायरों ने इसका उल्लेख अपनी शायरियों और नज्मों में किया है | यही नहीं अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर ने खुद अपनी रचनाओं में होली का मनोरंजक और श्रृंगारिक वर्णन किया है | नजीर ने तो मुगलकालीन समय में हिन्दू रीति की प्राण-प्रतिष्ठा में राधा-कृष्ण की होली में चार चाँद लगा दिये ,बानगी देखिए —
जब ठहरी लपधप होरी की और चलने लगी पिचकारी भी |
…………………………होली खेले हँस-हँस मनमोहन और उनसे राधा प्यारी भी ||

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मुगलकालीन संस्कृति में साम्प्रदायिक सौहार्द्र के बीज छुपे थे ,क्यों की उस समय हिन्दू रीति के अनुसार होली खेली जाती थी | प्रसिद्ध अरब भूगोलवेता एवं इतिहासकार “अलबरूनी” के शब्दों में — अकबर का जोधाबाई के साथ और जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का अंदाज भव्य होता था |
परन्तु होली खेलने की सभी रीतियाँ उस समय फीकी पड़ जाती है जब हम हमारे वीर शहीदों द्वारा खेली गई “खून की होली” को हम याद करते हैं !! वीर भगत सिंह की अगुवाई में गाया वह गाना आज भी हमारे तन-मन में रोंगटे खड़ा कर देता है – मेरा रंग दे बसंती चोला…………………….
एक वीररसात्मक और आत्मोत्सर्ग की पराकाष्ठा होली के रूप में परिलक्षित हुई | यही वो होली थी जो भारत माता को हजारों वर्षों की गुलामी की बेड़ियों से आजाद कर गई और हमें दे गई होली का आनन्द और मस्ती | मगर आज भी याद है हमें वो — सत्तावन की होली ,अल्फ्रेड पार्क की होली और जलियावाला बाग की होली !!!!
चूँकि भारत के विविध क्षेत्रों में विविध रूप से होली का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता रहा है |परन्तु विशेष तौर पर देखा जाए तो यह भौगौलिकता के साथ-साथ ऐतिहासिकता,मनोवैज्ञानिकता एवं पौराणिकता के साथ गहन रूप से जुड़ी हुई है |
भौगोलिकता से तात्पर्य यह है कि भारतीय राज्यों के अनुसार होली का स्वरूप भिन्न-भिन्न रहा है जैसे – सतही एवं भूमिगत जल की बाहुल्यता वाले क्षेत्रों में धुलंडी पानी से प्रचुर रहती है जबकि थार मरूस्थल जैसे क्षेत्रों में सूखे रंगों की बाहुल्यता होती है | इसके अतिरिक्त होली दहन में प्रयुक्त सामग्री भी इसी के अनुरूप होती है जैसे- गेहूँ ,चना,मक्का , खेजड़ी(शमी),खैर ,कैर या उपळे इत्यादि-इत्यादि |
ऐतिहासिकता से तात्पर्य है कि इतिहास के अनुसार होली का त्योहार मनाना ,जैसे – ब्रज क्षेत्र में पूतना राक्षसी को जलाने की प्रक्रिया तथा अन्य क्षेत्रों में हिरण्यकश्यप की बहिन और प्रहलाद की बुआ के रूप में होली का दहन !
मनोवैज्ञानिकता से तात्पर्य होली के विविध स्वरूपों को लेकर है ,जैसे ब्रज और ब्यावर की लठमार होली , महावीर जी और रोहतक की पत्थरमार होली और कहीं-कहीं गाली-गलौच की होली | इस प्रकार की होली का मनोवैज्ञानिक लाभ यह है कि इससे व्यक्ति में विद्यमान अशिष्ट तनाव समाप्त हो जाता है | दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि मानवीय संवेदना पर प्रबल पशु प्रवृतियों का रेचन हो जाता है | यह देखने योग्य है कि समाज में प्रेम और स्नेह की निरन्तरता में भी होली का विशेष महत्व है |
पौराणिकता से तात्पर्य है कि पौराणिक महत्व को बरकरार रखते हुए सतत् प्रकिया के अनुरूप संस्कृति को जीवंतता प्रदान करना ,जो की भारतीय संस्कृति की अनूठी विशेषता है |
मगर !!!! आज , कहाँ जा रहे हैं हम ? दिशाविहीन और अविवेकी होकर ! प्राचीन काल से हम अपना और अपने पर्यावरण का कितना ख्याल रखते थे | होली -दहन में हम खेजड़ी(शमी) कैर,खैर का ईंधन ,गाय का घी ,गाय के गोबर के उपळे ,जौ जैसी वस्तुओं का दहन करते थे ताकि हवन के रूप में अग्नि प्रज्वलित होकर हमारी प्रकृति और हमारे पर्यावरण को शुद्ध कर सकें | इसी तरह धुलंडी को हम प्राकृतिक रंगों का उपयोग करते थे जैसे — रोहिड़ा के फूल ,चंदन , केसर, गुलाब, केवड़ा , हल्दी, कुमकुम , चुकन्दर ,गाजर इत्यादि -इत्यादि ,जिनका कोई बुरा असर नहीं होता था स्वास्थ्य पर | परन्तु आज चंद लालसा की खातिर रासायनिक रंगों का प्रयोग निरन्तर बढ़ रहा है ,जो कि एक स्वस्थ समाज को अस्वस्थ समाज में तबदील कर रहा है | इसी प्रकार जल का अनुचित प्रयोग और प्रदूषण भी सोचनीय विषय है |
होली दहन में हम अब यही देखते है कि होली को जल गई !! असत्य पर सत्य की जीत हो गई ! बुराई का विनाश हो गया !!! मगर हम यह नहीं देख पाते कि – होलिका दहन तो कर दिया पर उसमें जलता क्या है ? ये नहीं देख पाते !!! आज जो ईंधन जलाते हैं वो जलकर खाक हो जाता है और दे देता है प्रकृति,पर्यावरण और जैवविविधता के लिए खतरनाक रसायन ,धुँआ और गैसें ! ये वो गैसें हैं जो बढ़ा रही हैं –ओजोन क्षरण ,ग्लोबल वार्मिंग ,एलनीनों प्रभाव ,चक्रवातों की प्रबलता ,पर्यावरणीय प्रदूषण और जैवविविधता संकट !!!!! ये वो संकट हैं जो मानवीय सभ्यता के लिए भी खतरा बनकर उभरे हैं | अत: आज हमें फिर से प्रकृति की ओर लौटकर “होली” का त्योहार मनाने की आवश्यकता है, ताकि एक स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण में हम साँस ले सके और इस अद्भुत मानवीय जीवन को सार्थक कर सकें |
——————————– डॉ० प्रदीप कुमार “दीप”

Language: Hindi
Tag: लेख
399 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
फूल फूल और फूल
फूल फूल और फूल
SATPAL CHAUHAN
वक्त से वक्त को चुराने चले हैं
वक्त से वक्त को चुराने चले हैं
Harminder Kaur
#सुप्रभात
#सुप्रभात
*Author प्रणय प्रभात*
राष्ट्र भाषा राज भाषा
राष्ट्र भाषा राज भाषा
Dinesh Gupta
" मँगलमय नव-वर्ष-2024 "
Dr. Asha Kumar Rastogi M.D.(Medicine),DTCD
चक्षु सजल दृगंब से अंतः स्थल के घाव से
चक्षु सजल दृगंब से अंतः स्थल के घाव से
Er.Navaneet R Shandily
डिजिटलीकरण
डिजिटलीकरण
Seema gupta,Alwar
"वसन्त"
Dr. Kishan tandon kranti
किसी की हिफाजत में,
किसी की हिफाजत में,
Dr. Man Mohan Krishna
ये दिल है जो तुम्हारा
ये दिल है जो तुम्हारा
Ram Krishan Rastogi
वोट दिया किसी और को,
वोट दिया किसी और को,
सोलंकी प्रशांत (An Explorer Of Life)
लफ्ज़
लफ्ज़
Dr Parveen Thakur
कल तक जो थे हमारे, अब हो गए विचारे।
कल तक जो थे हमारे, अब हो गए विचारे।
सत्य कुमार प्रेमी
गौमाता को पूजिए, गौ का रखिए ध्यान (कुंडलिया)
गौमाता को पूजिए, गौ का रखिए ध्यान (कुंडलिया)
Ravi Prakash
दोहे- साँप
दोहे- साँप
राजीव नामदेव 'राना लिधौरी'
बचपन
बचपन
ओमप्रकाश भारती *ओम्*
मन उसको ही पूजता, उसको ही नित ध्याय।
मन उसको ही पूजता, उसको ही नित ध्याय।
डॉ.सीमा अग्रवाल
“नये वर्ष का अभिनंदन”
“नये वर्ष का अभिनंदन”
DrLakshman Jha Parimal
मैं अपने दिल में मुस्तकबिल नहीं बनाऊंगा
मैं अपने दिल में मुस्तकबिल नहीं बनाऊंगा
कवि दीपक बवेजा
*अहंकार*
*अहंकार*
DR ARUN KUMAR SHASTRI
****शीतल प्रभा****
****शीतल प्रभा****
Kavita Chouhan
लार्जर देन लाइफ होने लगे हैं हिंदी फिल्मों के खलनायक -आलेख
लार्जर देन लाइफ होने लगे हैं हिंदी फिल्मों के खलनायक -आलेख
डॉक्टर वासिफ़ काज़ी
*
*
Rashmi Sanjay
चाय और सिगरेट
चाय और सिगरेट
आकाश महेशपुरी
"मां की ममता"
Pushpraj Anant
भोर अगर है जिंदगी,
भोर अगर है जिंदगी,
sushil sarna
हटा 370 धारा
हटा 370 धारा
लक्ष्मी सिंह
23/20.*छत्तीसगढ़ी पूर्णिका*
23/20.*छत्तीसगढ़ी पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
कभी छोड़ना नहीं तू , यह हाथ मेरा
कभी छोड़ना नहीं तू , यह हाथ मेरा
gurudeenverma198
🐼आपकों देखना🐻‍❄️
🐼आपकों देखना🐻‍❄️
Vivek Mishra
Loading...