लोग किस्मत पे आँसू बहाते रहे
ग़ज़ल
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212–212–212–212
दीप उल्फ़त का हम तो जलाते रहे
फ़र्ज़ इंसानियत का निभाते रहे
जिन्दगी भर किये संग जिसके वफ़ा
बद्दुआ से हमें वो सजाते रहे
इक झलक मिल न पाती हमें आजकल
उनकी गलियों के चक्कर लगाते रहे
हम थे नादान उनको न समझे कभी
हाय उल्फ़त ये किस से जताते रहे
भूखी जनता मरे या चलें गोलियाँ
वो तो पहचान अदू से बढ़ाते रहे
अदू — दुश्मन
आज इज़हारे-उल्फ़त जो उनसे किया
शर्म से वो तो घूँघट गिराते रहे
गर्दिशे-वक्त छा जाए हम पे मगर
गीत फिर भी खुशी के ही गाते रहे
गर्दिशे वक्त – बुरा समय
बह गये घर के घर ग़म के सैलाब में
लोग किस्मत पे आँसू बहाते रहे
वो सुनेगा मेरा रब किसी रोज़ ये
सोचकर दिल को “प्रीतम” मनाते रहे
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)
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