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24 Aug 2016 · 1 min read

रूठा रुठा सा लगता है मुझको ये भगवान तभी।

गजल

ज्यादा पैसे की चाहत है, भूल गया मुस्कान तभी।।
खुदा देवता बनना चाहा नही रहा इंसान तभी।।

दया भावना बची न बिलकुल इंसां एक मशीन बना।
अंदर से हर कोई मुझको लगता है सुनसान तभी।।

केवल मतलब से ही उसके आगे शीश झुकाते हैं।
रूठा रूठा सा लगता है मुझको ये भगवान् तभी।।

सच्चाई के साथ रहो तुम इस दुनिया के मेले में।
सब पर प्रेम लुटाते चलिये हारेगा शैतान तभी

दर्द दबे थे नीवों में लाचारों के मजबूरों के
खूँ से लथपथ दीवारें थी हुये महल वीरान तभी।।

रौनक नहीं रही चेहरे पर आंखें बुझी बुझी सी हैं।
शायद सता दिया मुफलिस को दिखते हो बेजान तभी।।

राह अँधेरी भटक गये जो उनके लिये उजाला कर।
“दीप” जहाँ में मिल पायेगी तुझको भी पहचान तभी।।

प्रदीप कुमार

1 Comment · 333 Views
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