राजयोग महागीता:: धर्म और अधर्म,सुख-दुख सब ही तो
घनाक्षरी:: अध्याय१ गुरुक्तानुभव::छंद – ६:: पोस्ट ११
धर्म और अधर्म, सुख – दुख सब ही तो ये
मानस की उपज हैं कदापि तू न कर्ता ।
तू देह से असंग यदि मान ले स्वयं को तो –
जान लेगा अपने को , कदापि है न भोक्ता ।
सर्वदा असंग है तू सर्वदा ही मुक्त है तो —
जान लेगा अपनी भी क्या है उपयोगिता ।
जब जान लेगा स्वयं को आत्मा परमतत्व ,
निज को पायेगा मुक्त , जान लेगा योग्यता ।।६/ अ १!!
—- जितेंद्र कमल आनंद