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27 Jul 2017 · 1 min read

रदीफ़-रह गया

रदीफ़- रह गया।

जाने कहां गए वो लम्हे इक जर्जर किला था ढह गया।
मैं बिन जल मछली सी तड़पूं हर पल अकेला रह गया।

ग़म-ए- जुदाई है या पहाड़ है,झरना अश्कों का बह गया।
दिल फिर अकेला रह गया,हाय! क्यों अकेला रह गया।

देकर साइयाँ, परछाइयाँ जलते मरु सी खाइयाँ
जलती विरह अँगनाइयों का,मातम ही बस रह गया।

बस देह पिंजरे में अकेला मेरे उर का पंछी दह गया।
कबसे सनम तेरे इंतज़ार में दिल जिगर अकेला रह गया।

तेरे चाहतों के बाग़ में, दिल जाने क्या क्या सह गया।
नाजुक से मनवा में,बस बोल आह-कराह का रह गया।

कर्मठ कभी था जो नीलम,वो थका-हारा रह गया।
क्या क्या कहूँ तुमसे सनम बाकी बहुत कुछ रह गया।

दिल बेताब था सुनने को आते-आते मेरा नाम
उसके कांपतेे लरजते होंठों पे आकर रह गया।

अब आए,वो तब आए मन राह देखता रह गया।
झूठा दिलासा देते रहे वो,मन सच बोलता रह गया

आँधियां तो बहुत आईं थीं जीवन में मेरे नीलम
थे कृष्ण मेरे साथ तो आशा दीप जलता रह गया।

नीलम शर्मा

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