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19 Jan 2017 · 1 min read

मौन कविता

मैं न लिख पाया
उसके बारे में कभी
सोचता ही रहा
कि आज कुछ लिखूंगा।

उसको निहारता हूँ
कोरे केनवास में
तो कभी पढता हूँ
उस पे लिखी
बिना शब्दों की कविता को।

उसका स्वर मंदिर की घंटियों सा
उसके चक्षु जलते दीपक से
उसके स्नेह की महक चंदन सी
वो देवी – पर कहलाती परी।

वो तो बिना परों के
छू लेती थी आसमान
तो कभी बन जाती
एक अदृश्य मूर्ती।

मैं जब भी खामोश होता था
वो गुनगुनाती थी कानों में
और रुष्ट सा दिखता मैं तो
वो दिखाई देती थी
जैसे शांत आसमां को छूता बादल।

मैं घर की सूनी वादियों में
चिल्लाता हूँ उसका नाम
तो प्रतिध्वनि में आता है
हर बार
ईश्वरीय संगीत।

मैं उसका प्रथम नायक
उसका विचार मेरा संबल।
पर वो मेरी अमानत नहीं है
मेरा घर उसका नहीं है।

मैं हर रोज़ ढूँढता हूँ
मेरे घर में
उस अदृश्य मूरत को
उस अनकहे संगीत को
और उस बिना बरसे बादल को।

आखिर क्यों?
बेटी चाहे आत्मा हो,
कहलाती है
पराया धन!

1 Like · 882 Views
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