“मैं बेटी घर की आंगन जैसी हूँ”
मैं बेटी घर की आंगन जैसी हूँ
मैं बाबुल की न्यारी
मैया की राजदुलारी
बहना की सखी
बेटी हूँ…
घर घर नहीं केवल कमरा होता
वैसे जिस घर में बेटी नहीं होती
वह परिवार भी कभी
पूरा नहीं होता….
इसलिए मेरी शादी के बाद
आंगन सूना सा हो जाता
भले शादी के बाद मैं पराई हो जाती
पर मायका का खुला दरवाजे व खिडकियाँ
हर वक्त मेरा रास्ते देखते. ..
वैसे भैया व बहना मुझसे मिलने को तरसते
मैया और बाबुल मुझसे मिलने का
खुली आँखों से सपना संजोते
दिल से मुझे खुश रहने का सदा आशिष देते. .
मैं बेटी घर की आंगन जैसी हूँ. ….
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ बिहार
23 / 1 / 17
मौलिक और अप्रकाशित रचना