मेरी लेखनी भी सँवरने लगी है
मधुर बंसी मोहन की बजने लगी है
कली भी तो मधुबन में खिलने लगी है
सुनी राधिका ने वो बंसी की धुन तो
के सुध बुध जो उनकी बिसरने लगी है
वो पायल की रुनझुन वो धुन बांसुरी की
कि फिर रास अनुपम सी रचने लगी है
के राधा भी नाचें वो गोपी भी नाचें
के गैया भी मगन हो थिरकने लगी है
हरिक गोपियां संग में नाचें कन्हैया
वो राधा खुशी से उछलने लगी है
नहीं जाए बरनी वो खुशियां बिरज की
दया सबपे प्रभु की बरसने लगी है
किया है मिहर यूं कन्हैया ने “प्रीतम”
मेरी लेखनी भी संवरने लगी है