बेटियाँ
माँ का साया है तो बेटी बाप का गुरूर है !
शान है ससुराल की तो मायके का नूर है !!
आज के इस दौर में बेटा बेटी एक से,
फ़र्क़ करते दोनों में दिमाग का फितूर है !
मानता हूँ बेटियाँ काँधा देने से महरूम है,
बेटी बेहतर बेटों से, इतना मगर ज़रूर है !
है तक़ाज़ा वक़्त का बेटी बचा बेटी पढ़ा,
कौनसी गफलत में तू किस नशे में चूर है !
नज़्म है “कमल ” की ये, पढ़ना ज़रा अदब से तुम,
नज़्मे सियासत है नहीं ये, बेटी का मज़कूर है !
(महरूम=वंचित, नज़्मे सियासत=राजनीति की कविता, मज़कूर=वर्णन )