बस क़लम वही रच जाती है…
रस-छंद-अलंकारों की भाषा मुझको समझ नही आती है…
जो होता है घटित सामने बस क़लम वही रच जाती है…
माँ की ममता को देख क़लम ममत्वमयी बन जाती है…
और पिता का विस्तार देख कर्तव्य पितृ यह रच जाती है…
बहन का स्नेह कभी यह रेशम की डोरी सा रच जाती है…
भाई का निश्छल प्रेम कभी यह राम-भरत सा रच जाती है…
जब देखता व्याकुल मन तो विकल क़लम यह बन जाती है…
जब देखता भूखा कोई तो यथास्थिति यह कह जाती है…
अनाथालय-वृद्धाश्रम अलग देख टिस मन की कह जाती है…
बड़े लोगो की देख नीचता शर्म मानवता रच जाती है…
छोटे तबकों का देख बड़प्पन गर्व से फूली जाती है…
भेदभाव की राजनीति पर कुठाराघात तभी कर जाती है…
आरक्षण की बेड़ियो पर भारती का क्रंदन गाती है…
नोटो से वोटों की खरीदी दुर्भाग्य भारत कह जाती है…
सत्ता में डूबी सरकार जगाने ओज़ यही रच जाती है…
हर साल चुनाव पर बर्बादी समय यथा लिख जाती है…
क्यो न होता इकसाथ चुनाव प्रश्न ज्वलन्त यह कर जाती है…
भारत को स्वर्णिम बनाने आक्रोशित स्वयं यह हो जाती है…
काश्मीर की पत्थरबाजी घाव क़लम यह कह जाती है…
सैनिक के गाल तमाचा क्रोधित अंदर तक हो जाती है…
नापाक पड़ोसी की मानवता शर्मसार यही लिख जाती है…
वीरों के शव से छेड़छाड़ क्रूरता उसकी बतला जाती है…
नन्हे हाथों में थमा पत्थर अलगावी रोटी जब सेकीं जाती है…
अपने ही घर में भेड़ियों की जाति इंगित कर जाती है…
हाँ नक्सल हमलों की बर्बरता खूं से यह रच जाती है…
हद मानवता की पार उन्होंने शब्द-शब्द यह रच जाती है…
उन वहशी पिशाचो की निर्ममता अक्षर-अक्षर रच जाती है…
पर वीरों ने खाई सीने पर गोली गर्वित उनको बतला जाती है…
अंतिम साँस तक चली लड़ाई सजीव घटना रच जाती है…
पाण्डव पुत्रो पर यह कौरव प्रहार षड्यंत्र सा कह जाती है…
काश्मीर और नक्सल पर जब मौन सरकार को पाती है…
घटना के घण्टों बाद बस कड़ी निंदा जब की जाती है…
तब सेना के स्वाभिमान को कटाक्ष सरकार पर कर जाती है…
सत्ता के मोह को त्याग राष्ट्र का धर्म उन्हें बतला जाती है…
स्वर्णिम भारत की तस्वीर उनके समक्ष फिर ले आती है…
सवा अरब आबादी का अभिमान उन्हें समझाती है…
क़लम मौन कब रहती है जीवटता अपनी रच जाती है…
राष्ट्रहित में अक्सर यह सत्ता से भी टकरा जाती है…
जब-जब मुंदती आँखे सरकारें सचेत उन्हें कर जाती है…
सेना की हर मुश्किल में साथ खड़ी यह हो जाती है…
माँ भारती का यशगान नित शब्दो से यह कर जाती है…
विश्वगुरु होगा फिर भारत संचार हृदय हर कर जाती है…
✍अरविन्द दाँगी “विकल”
०९१६५९१३७७३