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18 Sep 2017 · 1 min read

फूस का आराम देता मेरा घर अच्छा लगा

साथ चलने वाला मेरा हमसफ़र अच्छा लगा
राह में काँटे मिलें या गुल मगर अच्छा लगा

उसने माँगी थीं दुआएँ जो कभी मेरे लिए
उन दुआओं का हुआ है अब असर अच्छा लगा

खो गया था दिल मेरा जिसके नज़रे-झील में
डूब कर हम रह गये थे वो भँवर अच्छा लगा

वो जहाँ पर घर बना था मेरे उस महबूब का
सच कहूँ तो संग था पर वो शहर अच्छा लगा

इक नज़र देखा जो उसने और सीने में ये दिल
हो गया घायल हमारा ये जिग़र अच्छा लगा

गर्मियों की चिलचिलाती धूप में चलकर मुझे
फूस का आराम देता मेरा घर अच्छा लगा

घूम कर सारे जहां को देख मैंने है लिया
रहते हैं अहबाब मेरे वो नगर अच्छा लगा

है सिखाया इस जहां को अदब-ओ-तहज़ीब-ओ-सबक
आज मुझको उस नबी का पाक दर अच्छा लगा

हो गये दीवाने तेरे देखकर ज़ल्वा तेरा
मुझको “प्रीतम” तेरे जैसा ज़ल्वाग़र अच्छा लगा

प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)
नवंबर 2016

654 Views
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