फूस का आराम देता मेरा घर अच्छा लगा
साथ चलने वाला मेरा हमसफ़र अच्छा लगा
राह में काँटे मिलें या गुल मगर अच्छा लगा
उसने माँगी थीं दुआएँ जो कभी मेरे लिए
उन दुआओं का हुआ है अब असर अच्छा लगा
खो गया था दिल मेरा जिसके नज़रे-झील में
डूब कर हम रह गये थे वो भँवर अच्छा लगा
वो जहाँ पर घर बना था मेरे उस महबूब का
सच कहूँ तो संग था पर वो शहर अच्छा लगा
इक नज़र देखा जो उसने और सीने में ये दिल
हो गया घायल हमारा ये जिग़र अच्छा लगा
गर्मियों की चिलचिलाती धूप में चलकर मुझे
फूस का आराम देता मेरा घर अच्छा लगा
घूम कर सारे जहां को देख मैंने है लिया
रहते हैं अहबाब मेरे वो नगर अच्छा लगा
है सिखाया इस जहां को अदब-ओ-तहज़ीब-ओ-सबक
आज मुझको उस नबी का पाक दर अच्छा लगा
हो गये दीवाने तेरे देखकर ज़ल्वा तेरा
मुझको “प्रीतम” तेरे जैसा ज़ल्वाग़र अच्छा लगा
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)
नवंबर 2016