फिर तल्ख़ियों का लुक़्मा निगलना पड़ा मुझे
ग़ज़ल
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221 2121 1221 212
मतला
माँ बाप से बिछड़ के सँभलना पड़ा मुझे
इस जिंदगी को ऐसे बदलना पड़ा मुझे
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किस्मत भी रो पड़ी थी मेरी देख कर यही
जब आज़ गर्दिशों में भी पलना पड़ा मुझे
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हमको तलाशे-यार में मंजिल नही मिली
शबो रोज़ फ़ुर्क़तों में ही जलना पड़ा मुझे
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मिलते नहीं जुबां में निवाले शहद भरे
फिर तल्ख़ियों का लुक्मा निगलना पड़ा मुझे
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उस बेवफ़ा के जैसे न पत्थर मैं बन सका
बस मोम की तरह से पिघलना पड़ा मुझे
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छू लेंगे चाँद हम भी तो सोचा था ये मगर
बस दूर से ही देख बहलना पड़ा मुझे
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अपनों ने दिल पे जख़्म दिए हमको इस तरह
कूचे से फिर तो उनके निकलना पड़ा मुझे
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“प्रीतम” जो जल चुकी है हसरतों की लाश जो
माथे पे अपने राख़ को मलना पड़ा मुझे
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प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)