प्रगतिशील जीवनस्तर या नैतिक पतन
प्रगतिशील जीवनस्तर या नैतिक पतन
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सिकुड़ता समय का दायरा और बढते जिम्मेदारियों का दायित्व, विलुप्त होती मानवता, बढते स्वार्थपरता के दायरे। आज के गतिशील जिन्दगी के यहीं वो साइड इफेक्ट है जो हमारे मानवीय मुल्यों को तार-तार कर रहे है।
आज हम हर एक मुल्य पर नैतिकता के पतन की चरम विन्दु तक जाकर भी सिर्फ और सिर्फ कामयाब होना चाहते है लेकिन विडम्बना यह है कि इतना भी नहीं सोचते ऐसी कामयाबी का हम करेंगे क्या?
आज समाज के प्रति अब हमारा कोई दायित्व नही यहीं सोच प्रखर व प्रवल होने लगी है।
युवा पीढी पूर्व में स्थापित तमाम सांस्कृतिक सभ्यता मूलक संस्कारिक रीति-रिवाजों को रुढिवादिता का नाम देकर उसे अपने वर्तमान जीवन स्तर से बहिष्कृत करने लगे है।
इस पीढी की यहीं अवधारणा है कि ऐसे रीति-रिवाज जो कलान्तर से चले आ रहे है सब समाजिक विसंगतियां है जो प्रगतिशीलता को अवरुद्ध करती है अतः निःसंकोच इससे किनारा करने लगे हैं।
विडम्बना यह नहीं की आज की युवा पीढी किनारा करने लगी है विडम्बना तो यह है कि उनको ऐसा करने में मदद उनके माँ-बाप हीं कर रहे हैं।
अगर हालात यहीं रहे तो हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति सब विलुप्त हो जायेंगे।
परिस्थिति सोचनीय है, हम कहाँ जाकर रुकेंगे कहना कठिन है।
पं.संजीव शुक्ल “सचिन”
9560335952
लखनऊ
७/५/२०१७