प्रकृति और विकृति
ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण किया है और नाना प्रकार के वनस्पतियों , खनिजो , नदी , समुद्र ,पहाड़ इत्यादि संसाधनों का हमें अकूत भंडार दिया है . जिसका गुणगान हम जितना भी करे कम है , साथ ही यह चेतावनी भी है कि हम ईश्वर के बनाये इस भंडार का सही रूप से इस्तेमाल करे और इसकी गरिमा बनाये रखे , साथ ही में तरह-तरह के जीव भी इस पृथ्वी पर उपलब्ध है जो प्रकृति का ही एक हिस्सा है और ईश्वर का वरदान भी इसमें श्रेष्ठ जीव मानव कहा जाता है और मानव की उत्पत्ति के लिए सभी प्राणियों की तरह नर और नारी का निर्माण भी किया है और साथ ही में दोनों की बनावट और आकर्षण भी उनकी सरंचना के अनुरूप बनाया है
तेजी से बदल रहे परिवेश के कारण , बलात्कार , नारी शोषण , महिला उत्पीडन , मानसिक प्रताड़ना, भ्रूण हत्या तमाम प्रकार के प्रकरण तेजी से अपना रूप भयंकर से भयंकर लेते जा रहे है और आज इसी विकृति की खोज की हमे आवश्यकता है और जल्द से जल्द इस विकृति को हमे अपने समाज से दूर कर ईश्वर के वरदान मानव जाति के कुशल संवर्धन के लिए उपयोगी कदम उठाने की आवश्यकता है , वैसे तो समय समय पर महापुरुषो ने इस विषय पर कई कार्य किये है और उन्हें सफलता भी मिली है किन्तु जनसंख्या विस्फोट के कारण उनका यह सार्थक कदम भूसे के ढेर में सुई जितना साबित होता गया है . आज भी कई संगठन इस लिए प्रयासरत है और सार्थक कार्य भी कर रहे है किन्तु ‘’ दिए तले अँधेरा ‘’ कहावत यह कहावत भी कहीं कहीं चरितार्थ हो रही है क्योंकि इस विषय जिस व्यक्ति की यह धारणा होती है और वह संगठन का निर्माण करता है वह मात्र कुछ सीमाओं तक ही सीमित रह पाता है अथवा कुछ वर्षो तक ही जीवित रहता है और संस्था मार्गदर्शन में फूलती फलती है जिसके फलस्वरूप संगठन के साथ जुड़े लोगो , या उस संस्था से जुड़े कर्मचारी इसका गलत फायदा भी उठाते नज़र आते है और एक बार फिर ‘’आसमान से गिरे खजूर पर अटके‘’ वाली कहवत चरितार्थ हो जाती है और नारी फिर से विवश और लाचार हो जाती है , आदिकाल में नारी शक्ति का रूप थी और उनकी पूजा भी की जाती थी आज भी कहीं कहीं परम्पराओ में इसका उदाहरण देखने को मिलता है जैसे दुर्गा अष्टमी के दिन बालिका पूजन और भोज जिसमे बालिकाओ को भोजन ही नहीं कराया जाता अपितु उसे माँ शक्ति का अवतार समझ उसके चरण भी स्पर्श किये जाते है , उत्तर भारत में आज भी कहीं कहीं कन्याओ के चरण छुए जाते है और उन्हें अपनी माँ से अथवा सखी और महिला रिश्तेदारो से आलिंगन ही कराया जाता है, पिता , भाई एवं अन्य मायके के पुरुष उस बालिका या नारी से अपने चरण स्पर्श नहीं करते एवं उन्हें देवी दुर्गा का ही रूप मानते है अपवाद के रूप में सिर्फ ससुराल पक्ष की महिलाओ एवं पुरुषो को छोड़कर और यही संस्कृति और परम्परा इस बात का सन्देश है की आदिकाल में नारी का विशेष महत्त्व और स्थान था.
बदलते समय के साथ देश में कई प्रकार के आक्रमण हुए , आक्रमण सत्ता के लिए हुए किन्तु यह भी सत्य है की आक्रमण सत्ता के साथ साथ संस्कृति और परम्पराओ पर भी हुए . जिसके फलस्वरूप कई प्रकार के पन्थो ने जन्म लिया और लोग धीरे धीरे बंटने लगे लोगो के बंटने के साथ साथ संस्कृति और परमपराए भी बंटने लगी. नारी संस्कृति और परम्पराओ को जीवित रखने का प्रमुख साधन थी इसलिए सबसे पहले इस देश के सबसे मुख्य धारा जिसमे नारियो का सन्मान होता था और उन्हें समतुल्य रखा जाता था . इस मुख्य धारा को तोड़ने और नारी को बंधन में रखने के अभियान चलाये जाने लगे सालो साल चलने वाले इस प्रकार के अभियान और आक्रमणों ने देश की इस परम्परा को लगभग दबा ही दिया हम यह भी कह सकते है उसे सुसुप्तावस्था में डाल दिया. अभी तक की सारी बाते प्रकृति के बारे में हुई और उसमे एक बात स्पस्ट हुई की अनन्य सभ्यताओ के मिश्रण और आक्रमण से नारी का शोषण हुआ और आज यह विकट रूप लेता जा रहा है साथ ही में भारतीय सभ्यता और संस्कृति में संक्रमित हो चूका है
मुख्य बात यह है कि आज के परिवेश से बताना चाहता हूँ और सन्देश भी देना चाहता हूँ यदि आप तक थोड़े में पंहुचे तो मेरा सौभाग्य है ‘’नारी को देखना , उसकी सुन्दरता की सराहना करना , उसके लिए कामना करना और उसके लिए प्रयास करना ईश्वर के बनाये सरंचना का एक अंग है जिसे मै प्रकृति की संज्ञा देता हूँ
किन्तु
नारी को देखकर उसके प्रति गंदे ख्याल करना , उसका मानसिक शोषण करना , उसे तरह तरह से टिपण्णी करना , उसका बलात्कार करना , और उसे बिना उसकी इच्छा के हासिल करने के चेष्टा करना, नारी को अधम और सिर्फ उपभोग की वस्तु समझना एक विकृति है
आइये हम सब मिलकर इस विकृति को दूर करे और प्रकृति से प्रेम करे क्योंकि कहा गया है ‘’अति सर्वत्र वर्जतेय ‘’
इस लेख के सारे विचार लेखक के अपने है, और यदि इस संदर्भ में कोई त्रुटी हो गई हो तो लेखक छमा का प्रार्थी है
लेखक : अजय “बनारसी’’