प्यार का मौसम सुहाना चाहता हूँ
2122 2122 2122
बह्रे रमल मुसद्दस सालिम
28/07/2017
ग़ज़ल
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मैं वतन पर जाँ लुटाना चाहता हूँ
अम्न की खुश्बू बहाना चाहता हूँ
दिल ये करता साथ बच्चों के मैं खेलूँ
बचपने का फिर ज़माना चाहता हूँ
माँग कर तुमको खुदा से आज़ फिर मैं
ये मुक़द्दर आज़माना चाहता हूँ
बीच धारों का नही है डर मुझे अब
मैं लहर को आज़माना चाहता हूँ
है ग़रीबों की जहाँ बस्ती बनी मैं
अब चराग़े-दिल जलाना चाहता हूँ
जो दिए तुमने मुझे हैं जख़्म सारे
दाग़ दिल के वो दिखाना चाहता हूँ
आज़ रोको न हँसने से कोई मुझको
अश्क़ अपना मैं छुपाना चाहता हूँ
खिल गईं है आरज़ू की जो कली मैं
गुल वो गेसू में लगाना चाहता हूँ
नफ़रतों मैं मिटाकर हर दिलों में
प्यार का मौसम सुहाना चाहता हूँ
दिल ये करता साथ बच्चों के मैं खेलूँ
बचपने का फिर ज़माना चाहता हूँ
मर रहे भूखे यहाँ पर जो भी “प्रीतम”
मैं उन्हें रोटी खिलाना चाहता हूँ
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)