पीड़ा भावना की … (कविता)
मानव ह्रदय में वास करती थी कभी ,
प्रेम,त्याग ,करुणा व् सहिष्णुता बनकरें।
ईश्वर की इंसान को दी गयी एक ,
अमूल्य व् नगण्य भेंट बनकर ।
परन्तु आधुनिकता में हुआ ,
बुध्धि का ऐसा प्रचंड योग,
बुध्धि का ही करने लगे ,
अत्यधिक उपयोग तमाम लोगें।
भावनाओं की भाषा व्,
भावनाओं के सभी रूप,
पुन्जिवादिता ने तो कर,
दिया इसे इतना कुरूप।
कहीं-कहीं तो भावनाएं,
बची ही नहीं।
कुछ शेष थी उनका भी,
अब दम घुट रहा हैें।
वोह भी निस्संदेह बचेगी नहीं।
अब पूछो ,इस पत्थर की मूरत,
इस इंसान सेें।
खुदको अलग कर दिया जिसने,
अपनी आत्मा सेें।
आत्मा को मार कर,
भावनाओं को मिटाकर,
अब इसमें बचा क्या है?
भावना नहीं जिस तन में,
प्राण नहीं,
वोह तन जीतेजी शव सामान हैें।