पत्थर है लगा हमको उसी आज़ तो कर से
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ग़ज़ल
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हासिल न हुआ कुछ भी मुहब्बत के सफ़र से
उसने है गिराया जो मुझे अपनी नज़र से
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जो खाक़ हुआ पेड़ तनफ़्फ़ुर में वो जल कर
चिड़ियों को बड़ा प्यार था उस बूढ़े शज़र से—गिरह
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कुछ माँग नबी से तू झुका सिज़्दे में सिर को
लौटा न कोई खाली मेरे मौला के दर से
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कल हाथ में जिनके था दिया फूल कली भी
पत्थर है लगा हमको उसी आज़ तो कर से
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ले करके गया क़ल्ब सनम जब से ऐ “प्रीतम”
गुज़रा ही नहीं आज़ तलक वह तो इधर से
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प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)
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