तब तब शिव ताण्डव होता है…
जब देश सोया सोया सा रहता है…
युवा कमरे में खोया रहता है…
बुद्धिजीवी सुस्ताने लगते है…
बंद कमरों में न्याय कराने लगते है…
जब अंधकार प्रकाश को खाता है…
अहम् मानव पर चढ़ सा जाता है…
सूरज चन्दा सा हो ये जाता है…
कांधो पर बोझ बेटों का आता है….
अधरों पर स्वाद कड़वा ही आता है….
जब जीवन क्रदन करता है…
काल ताण्डव गर्जन करता है…
हवा रुग्ण जब हो जाती…
माटी में नमी सब खो जाती…
जब पाप पुण्य पर भारी हो…
नैनो में अश्रु अविरल से हो…
जब चहुँ और बस विकल हृदय हो…
जब धरती बोझ सह न पाती…
तब तब शिव ताण्डव होता है…
तब तब शिव ताण्डव होता है…
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✍अरविन्द दाँगी “विकल”