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18 May 2017 · 1 min read

गजल

मुझे कुछ दूर एक मंजर नजर आता है
मुझे खुद का घर जलता नजर आता है

मैं दिनभर जरे जरे में खोजता फिरता हूँ उन्हें
बस वो हसीं चाँद मुझे ख्याबो में नजर आता है

बहुत खोजो तब दुनिया मे कोई हमदर्द नजर आया
उसके बिना तो मुझे सिर्फ दुनिया मे पतझड़ नजर आता है

मुसलसल मुफ़लिसी में कटी है मैने सारी जिंदगी
मुझे दुनिया से कही ज्यादा रोटी का टुकड़ा अच्छा नजर आता है

जमाने मे अच्छे दिनों को देखते देखते थक गया हूँ
अब मुझे घर मे खत्म होता हुआ राशन पानी नजर आता है

आज फिर इस कुदरत ने तूफान बन सताया है मुझे
क्योंकि मुझे घर का गिरा हुआ छप्पर नजर आता है

बेटियों को तो ख़ुदा की नेमत कहा जाता है जमाने में
भगर मुझे तो दहेज से उनका भविष्य काला नजर आता है

इससे तो पुराने युग के निरक्षर लोग ही बहुत अच्छे थे
आज हर पढ़े लिखे के हाथ मे मुझे खूनी खंजर नजर आता है

अब तो टूटकर ‘ऋषभ’ इस कदर बिखर गया है
कि कब्र में उसे कोई ख़ुशनुमा मंजर नजर आता है

रचनाकार-ऋषभ तोमर
अम्बाह

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