कविता:..??गमे-घर मेरी ज़िंदगी..??
ग़मे-घर मेरी ज़िन्दगी,बना दी है आपने।
जीते मरे हैं वो बात,सुना दी है आपने।।
वर्षों से प्यार की एक उम्मीद जागी थी।
बेवफ़ाई की मोहर पर,लगा दी है आपने।।
मुझे ख़बर न थी आपके ऐसे ज़वाब की।
जिसे सुना मेरी रूह,हिला दी है आपने।।
दर्द से खाली नहीं ज़िस्म का कोई हिस्सा।
ज़ख्मों की ऐसी तह,बिठा दी है आपने।।
रोके रूकते नहीं अश्क़ आँखों से बहते हैं।
दर्द का सागर ये आँखें,बना दी हैं आपने।।
मैंने ख़ुदा से कम कभी तुझे देखा न था।
मेरे विश्वास की ज्योति,बुझा दी है आपने।।
तेरी उल्फ़त का पहला फूल क़िताब में है।
पर मुहब्बत की ख़ुशबू,उड़ा दी है आपने।।
तुझे छिप देखना सकूं पाना भुला न दिल।
उन आहों की अर्थी क्यों,उठा दी है आपने।।
लोग कहते हैं वफ़ा के बदले वफ़ा मिलती।
लोगों की बात दिल से,हटा दी है आपने।।
व्याकुल इतना”प्रीतम”क्या सुनाऊँ हाले-दिल।
काटो तो ख़ून नहीं हालत,बना दी है आपने।।
……राधेयश्याम बंगालिया”प्रीतम”
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