क्यों न होता यहाँ इक साथ चुनाव..?
बड़ा अज़ीब सा हाल है मेरे देश का…
कभी यहाँ चुनाव…कभी वहाँ चुनाव…
इस साल चुनाव…उस साल चुनाव…
हर साल चुनाव…पांचो साल चुनाव…
कभी यहाँ गठजोड़…कभी वहाँ पुरजोर…
कभी बनती सरकार…कभी बिगड़ती सरकार…
क्यों न होता यहाँ इक साथ चुनाव..?
क्यों न चलता पांचो साल काम…?
क्यों न करते हर साल विकास…?
क्यों होता यहाँ बस वाद विरोध…?
क्यों गिरती सरकार फिर क्यों गठती सरकार..?
यहाँ कैसा अज़ब लोकतंत्र है….!
लूटता यहाँ हर राजतंत्र है…!
ठगा सा यहाँ बस प्रजातंत्र है…!
जन मन का न होता यहाँ कोई खास…
बस वोट माँग भूलता यहाँ शाही ठाट…
कहता “विकल” हो उठता विकल…
जब पांचो साल चलेगा चुनाव…
जब हर साल होगा बस चुनाव…
फिर कैसे होगा अर्थव्यवस्था का उठाव…
और कैसे होगा विकास हर गाँव…?
✍कुछ पंक्तियाँ मेरी कलम से : अरविन्द दाँगी “विकल”