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5 Dec 2016 · 1 min read

किसी ग़ाफ़िल का यूँ जगना बहुत है

भले दिन रात हरचाता बहुत है
मगर मुझको तो वह प्यारा बहुत है

वो हँसता है बहुत पर बाद उसके
ख़ुदा जाने क्यूँ पछताता बहुत है

जुड़ा है साथ काँटा जिस किसी के
उसी गुल का यहाँ रुत्बा बहुत है

मैं जगता रोज़ो शब हूँ इसलिए भी
के वक़्ते आखि़री सोना बहुत है

अगर ख़ुद्दार है तो डूबने को
सुना हूँ आब इक लोटा बहुत है

है राह आसान रुस्वाई की सो अब
उसी पर आदमी चलता बहुत है

न हो पाया भले इक शे’र तो क्या
किसी ग़ाफ़िल का यूँ जगना बहुत है

-‘ग़ाफ़िल’

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