कविता :आज की शख़्सियत
देश की हालत देखकर ज़मीं पाँँव से निकल गई।
यूँ हुआ घायल मैं मानो छुरी ज़िग़र पर चल गई।।
१.घोटालों का बाज़ार गर्म है,
अख़बारों में ये समाचार गर्म है।
चारों ओर मची लूट-खसोट यहाँ,
मेरा भैया यह विचार गर्म है।
अन्तर्मन के आइने में झांकों,
देखोगे कौन कितना बेशर्म है।
लाज शर्म खूँटी पर टाँँग इंसानियत किस डगर गई।
यूँ हुआ घायल मैं मानो छुरी ज़िग़र पर चल गई।।
२.हर दफ़तर में रिश्वतख़ोरी है,
मुँह उठाए गुण्डागर्दी, चोरी है।
भ्रष्टाचार का यहाँ नगर बसा है,
झूला-झूल रही देखो बलात्कारी है।
ईमानदार वह, जिसे मौका नहीं,
मौका मिला, ईमानदारी छिछौरी है।
रहमदिली का गाँव छोड़ शख़्सियत किस नगर गई।
यूँ हुआ घायल मैं मानो छुरी ज़िग़र पर चल गई।।
३.कालाबाज़ारी का रंग चढ़ा है,
इंसान के हाथों इंसान लुट रहा है।
क्या खाक़ बन गई है इंसानियत,
इंसान धर्म,जाति,क्षेत्र में बट रहा है।
पंचतत्त्व हैं और लाल लहू है,फिर-
क्यों इंसान इंसान से कट रहा है?
दया,प्रेम को त्यागकर दिलों में नफ़रत है भर गई।
यूँ हुआ घायल मैं मानो छुरी ज़िगर पर चल गई।।
४.मुँह फेर लेते लोग देख क़त्लेआम,
रिश्ते-नातों के भी लगने लगे हैं दाम।
रात की दुल्हन सुबह बेवा हो जाती,
ज़िस्मफ़रोशी का मिलता यही ईनाम।
काश!प्रेमभरा हो यहाँ हरदिल में”प्रीतम”,
ख़ुशियों से महक उठे हर सुबह-शाम।
दीप जलाए हूँ आशा के अगर किसी की नज़र गई।
यूँ हुआ घायल मैं मानो छुरी ज़िग़र पर चल गई।।
राधेयश्याम बंगालिया “प्रीतम”
सर्वाधिकार सुरक्षित कविता