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16 Jul 2016 · 1 min read

कली बुझी बुझी हुई गुलों में ताज़गी नहीं

कली बुझी बुझी हुई गुलों में ताज़गी नहीं
सभी बहुत उदास हैं नसीब में ख़ुशी नहीं

बहार वादियों से छीन ले गई है ख़ुश्बुएं
चमन परस्त बागवाँ की नींद पर खुली नहीं

हमें भी देख एक दिन तो सरहदों पे भेज कर
उबल रहा लहू जिगर में आग़ कम लगी नहीं

जो कर सका पलट के पत्थरों से वार कर गया
निगाह खोजबीन की उधर कभी उठी नहीं

हजार बार बात ये कही गई सुनी गई
महज हो एक वोट तुम कहीं से आदमी नहीं

तुम्हें यकीन ही कहाँ मेरे किसी सबूत पर
उसी पे मर मिटे किसी का जो हुआ कभी नहीं

राकेश दुबे “गुलशन”
15/07/2016
बरेली

1 Comment · 467 Views
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