ए.टी.एम.
महेश जैसे ही घर में घुसा माँ ने सवाल दागा “मेरी चार धाम यात्रा का कोई इंतजाम हुआ कि नहीं.”
महेश ने थके हुए स्वर में कहा “अभी नहीं माँ. मैं कोशिश कर रहा हूँ. पर इधर खर्चे इतने हैं कि कुछ हो नहीं पा रहा है.”
उसकी माँ साड़ी के पल्ले से अपनी आँखें पोंछती हुई बोली “जीवन खपा दिया कि तुम कुछ बन सको. अब छोटी सी इच्छा भी पूरी नहीं हो सकती.” यह कह कर वह अपने कमरे में चली गईं.
महेश आँखें मूंद कर बैठ गया. तभी पत्नी पानी लेकर आई. उसके बगल में बैठते हुए बोली “मेरी बरेली वाली मौसी का फोन आया था. बीस तारीख को उनके बेटे की शादी है. जाना पड़ेगा.”
“तो चली जाना.” महेश ने आँखें मूंदे हुए कहा.
“चली जाना का क्या मतलब. मेरे और बच्चों के लिए नए कपड़े खरीदने पड़ेंगे. फिर वहाँ कुछ भेंट भी देनी होगी.” पत्नी ने फरमाइश की.
“इन सब पर तो बहुत खर्च हो जाएगा. पैसे कहाँ हैं. माँ भी तीर्थ पर ना जाने के कारण नाराज हैं.” महेश ने अपनी परेशानी बताई.
पत्नी तुनक कर बोली “जब देखो पैसों का रोना रोते हो. मैं क्या सारी जिंदगी अपनी इच्छाएं मार कर रहूँगी.” वह भी पैर पटकती चली गई.
महेश अकेले बैठे सोंचने लगा. हर किसी को उससे शिकायत है. कोई उसकी परेशानी नहीं समझता. उसकी स्थिति तो उस ए.टी.एम की तरह है जिसमें सब पैसे के लिए लाइन लगाए खड़े हैं. किंतु ए.टी.एम में पैसे ही नहीं हैं.