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27 Aug 2016 · 1 min read

इंसानियत की लाश

कँधे पर उसके पत्नी की नहीं इंसानियत की लाश थी,
एम्बुलेंस नहीं मिली, चुकाने को नहीं कीमत पास थी।

जब से सुनी मैंने ये खबर रोटी मेरे गले से नहीं उतरी,
ये दिन भी देखने पड़ेंगे, इसकी बिलकुल नहीं आस थी।

उसकी मजबूरी का मजाक बना फोटो खींच रहे थे लोग,
बेटी रोती चल रही थी साथ में, ओढ़े दुखों का लिबास थी।

जब प्रशासन ही नहीं चला सकती तो सरकार कैसी हुई,
इतने दुःख तब नहीं देखे जब जनता अंग्रेजों की दास थी।

आत्मा रो रही थी खून के आँसू, मजबूरी को ये देख कर,
प्रधानमंत्री जी क्या इन्हीं अच्छे दिनों की हमें तलाश थी।

दोषी सरकार और प्रशासन नहीं वहाँ मौजूद लोग भी हैं,
लिखकर दर्द अपना सुलक्षणा निकाल रही भड़ास थी।

©® डॉ सुलक्षणा अहलावत

Language: Hindi
1 Like · 589 Views
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