” आहत हो रहा , गिलहरी सा मन ” !!
जातियों में बंट गये हैं !
समूहों में डट से गये हैं !
स्वार्थपरता की ललक है ,
लक्ष्य से भी हट गये हैं !
राजनीति अवसर तलाशे –
मच रहा क्रंदन !!
अपने पशुधन को सम्भालें !
कट रहे उनको बचा लें !
खाने को तो है बहुत कुछ ,
अहिंसा भी आजमां लें !
बीफ़ प्यारा उनको कह दें –
ना मथें जीवन !!
लूट है बटमार भी है !
मैले आँचल, गुहार भी है !
बावले सा समय लागे ,
हम डूबते मझधार ही हैं !
होगें रक्षित , और सुरक्षित –
कब यहां जन-धन !!
यहां घोटाले बड़े हैं !
नेताओं से सब डरे हैं !
भूख ने दामन ना छोड़ा ,
ग़रीब जीते जी मरे हैं !
भ्रष्ट धन , सरकारी नज़रें –
हो रहा मंथन !!
वेदना सहती रही हैं !
अभी बेड़ियां टूटी नहीं हैं !
तीन तलाक़ या अन्य रस्में ,
धार अश्रु बहती रही है !
बदलाव तो लाना ही होगा –
घर घर आँगन !!
घाटी में अलगाव की बू !
हम ही देते हैं हवा क्यूँ !
मुख्य धारा से जुड़े अब ,
हो कब तक भटकाव यूँ !
एकजुट हो राजनीति –
करे कुछ जतन !!
सीमा पर हैं लाल मां के !
हैं सजीले वीर बांके !
दांव खेले ज़िन्दगी का ,
सोच न्यारी है जहां से !
उंगलियां उन पर उठे ना –
हो शत शत नमन !!
अपनों से ही दुख मिला है !
दूर तक ना सुख मिला है !
रिश्ते सब बेमानी से हैं ,
जो मिला कुछ कुछ मिला है !
धूप है , कभी छांव भी है –
लद रही थकन !!