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21 Apr 2017 · 1 min read

आग मज़हब की लगाते कहने को इंसान है

घर किसी के दो निवाले के लिए तूफ़ान है
हाल से उसके हुजूरे आला क्यों अंजान है

पत्थरों का ये शहर है जान ले तू भी इसे
सब ख़ुदा के भेष में लेकिन बड़े शैतान है

हाथ मेरे रेत आया मोतियाँ बिखरी रही
किस्मतों की बात है कोई नही नादान है

कौन आएगा यहाँ हर ओर इक सैलाब है
बख्श दे या कर फ़ना तेरे हवाले जान है

हैं सभी बन्दे ख़ुदा के कह रहे थे चीख कर
आग मजहब की लगाते कहने को इंसान है

शोर सुनते ही नही ऊँचे महलवाले कभी
फाड़ क्यों दीदे रहे उनकी अपनी पहचान है

ये मसीहा बन गए हैं दौलतों का ढेर है
ऐ खुदा तूने भला कैसे गढ़ा इंसान है

मार डाले ना मुझे ये तेरी ही खुद्दारियाँ
सोया मुद्दत से नही मौला मेरा ईमान है

– ‘अश्क़’


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