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8 Jan 2017 · 1 min read

असुर हमारे भीतर ही है

बंगलोर में छात्रा से छेड़छाड़ की घटना से क्षुब्ध मन द्वारा उत्पन्न हुई मेरी रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ.

असुर हमारे भीतर ही है
__________________

वह जो आगे जा रही है,
निपट अकेली घबराई सी
तेज तेज कदमों से चलती
ढली सांझ के अंधियारे में
घर तक जाने की जल्दी में
वह हमारी बहिन सी ही है,
बेटी सम भी हो सकती है,
या मां जैसी ही हो शायद
लेकिन उसे अकेली पाकर
क्यों उठतीं आदिम इच्छाऐं
मन की पशुता क्यों जग जाती है
मर्यादाऐं क्यों मिट जाती हैं
कैसे उस एकाकी.पन में
मानव पशु बन जाता है.
मां,बहन और बेटी के
सारे संबंध भुला देता है
उसे नहीं दिखती नारी
बस जिस्म दिखाई देता है
उठो स्वयं के भीतर झांको,
यही जरूरी है
वह बाहर में कहीं नहीं है,
असुर हमारे भीतर ही है.

Language: Hindi
320 Views
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