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4 Jul 2017 · 1 min read

अपनेपन, मानवता के फूल और भेदभाव की सोच

ना फूल बरस रहे हैं
ना बरसाने की चाह बरस रही है
बस दिल मई एक अजीब सी आग धधक रही है।
असहीशुनाता, असहनशीलता,नस्लियता,भेदभाव और स्वार्थ की चिंगारी से लगी है ये आग
फिर क्यों आज अपनेपन के लिए तरस रही है।
विचारों की संकीर्णता है या भेदभाव की आदत है,
पर मांगते हैं अपनो से प्रेम , फिर भी विरोधी प्रवति पनप रही है।
बासठ,पैसठ,इकत्तर और निन्यानवे मई लदे थे मिलकर क्युकी तब देश बचाना था।
आज देशवासियों से लड़ रहें है क्युकी धर्म, जाति, समाज बचाना है।
लोकतंत्र, सहकारिता शायद किताबों के शब्द ही रह गये,
अब तो बस वही याद है जो ये मिडिया और टीवी वाले कह गए।
राजनितिक मुद्दों का प्रभाव जनता की सोच पर पड़ गया,
पढ़ा-लिखा युवा भी भेदभाव के चक्कर में पड़ गया।
तू नार्थ इंडियन तू साउथ इंडियन तू काला तू गोरा ये कैसा भेदभाव का दौर चला,किस दिशा के हैं ये तो पता चला पर भारतीय हैं ये न पता चला।
जल्द ही हम सब सीमओं को लाँघ जाएँगे ,
जिस देश के लिए चार लड़ाई लड़ी ,उसमे ही आपस मई लड़ जायेंगे।
खुद को शयद बचा भी लें शायद पर देश की एकता और अखंडता को नहीं बचा पाएंगे।

Language: Hindi
456 Views
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