हा बन सको तो बनो महावीर की बेटियों से तुम जाने जाओ…
जीवन में अधिकारों की सीमा में उनको बांध दिया…
बेटी है कहकर उनको घर की दीवारों में बस सम्मान दिया…
वारिस के पीछे इस जग ने कैसा कैसा काम किया…
बेटों की चाहत में बेटी को जन्म से पहले मार दिया…
फिर भी इंसा अपने ही खूं से क्यू न शर्मसार हुआ…
अरे न मारो बेटियों को उनको आने तो दो…
जीवन की इस बगिया में उनको मुस्काने तो दो…
हो सकता है कल को वो ही तुमको ध्यान रखे…
कभी सानिया कभी अदिति…फिर कोई नेहवाल बने…
जीवन के इस चक्र को अपने से तुम ढालो न…
जो दिया विधाता ने तुमको उसे प्यार समझ के पालो न…
न करो कृत्य तुम ऐसा कोई खुद की नज़रों में भी गिर जाओ…
हा बन सको तो बनो महावीर की बेटियों से तुम जाने जाओ…
✍अरविन्द दाँगी “विकल”