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10 Jul 2017 · 2 min read

लघुकथा : पर्दे की ओट

पर्दे की #ओट // दिनेश एल० “जैहिंद”
( #सोपान परिवार द्वारा दैनिक लेखन प्रतियोगिता में चुनी गई दैनिक श्रेष्ठ लघुकथा )

“पुराने रिवाजों को तोड़कर औरतें बाहर निकल रही हैं ।’’ विनोद ने अपनी बहन से कहा – “….. और तुम हो कि वापस इन रिवाजों में चिपकती चली जा रही हो ।’’
“क्या….? क्या मतलब ।” सरिता ने चौकते हुए सीधे प्रश्न किया — “मैं समझी नहीं ।”
“समझकर भी अनजान मत बनो, सरिता ।” विनोद ने शिकायत की – “… तुम अच्छी तरह समझ रही हो कि मैं क्या कहना चाहता हूँ ।”
“अहो, समझी ।” सरिता ने सिर के पीछे से ओढ़नी की गाँठ खोलते हुए अपनी समझदारी का परिचय दिया – “…. तो तुम मेरी ओढ़नी को लेकर कह रहे हो ।”
“तो क्या करूँ भैया । इस चिलचिलाती धूप में इस ओढ़नी के सिवा कोई दूसरा उपाय भी तो नहीं है ।’’
“तब तो उन बुर्के वालियों और तुममें क्या फ़र्क़ रह जाता है बहन ।’’ विनोद ने तपाक से कहा — “फिर तो मुस्लिम महिलाओं में बुर्के का प्रचलन कुछ नाजायज नहीं है । एक तो तपती धूप से भी बच जाती हैं और दूसरे इज़्ज़त की नुमाइश से भी ….. ।”
“सो तो ठीक है भैया । लेकिन हमारी नक़ाब धार्मिक प्रचलन नहीं है ।’’ सरिता ने सफाई दी – “मगर उनकी नकाब धार्मिक रिवाज है ।”
“नक़ाब धार्मिक प्रचलन नहीं पर पर्दा तो हमारे समाज का अभिन्न अंग है ।” विनोद ने हिंदू रीति-रिवाजों को जायज ठहराते हुए कहा – “फिर तो पर्दे से महिलाओं को गुरेज और इस ओढ़नी रूपी पर्दे से इतना प्रेम ….. क्यूँ …… ?”

=== मौलिक ====
दिनेश एल० “जैहिंद”
30. 06. 2017

Language: Hindi
450 Views
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