फूल बूटों से सजा कर के हरम रक्खा है
ग़ज़ल
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2122 1122 1122 22
प्यार की राह पहला जो क़दम रक्खा है
तुमको पाकर के सदा दूर ये ग़म रक्खा है
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वक़्ते आवाज़ है तू अब भी सुधर जा बंदे
वरना बरबादी ने भारत में क़दम रक्खा है
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मिलती हिम्मत है मुझे जुल्म से लड़ जाने की
सर को जब सिज़्दे में हाथों में क़लम रक्खा है
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किरचियों में न कहीं कल्ब बिख़र जाए मेरा
इसलिए हमनें न आँखों को ये नम रक्खा है
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फूल खिल जाते हैं सहरा में गुलाबों वाले
मेरे मौला ने ही ये नज़रे क़रम रक्खा है
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दिल फ़रेबी भी अज़ब शै है जहां में यारों
बस वफ़ा हमसे करेंगे ये भरम रक्खा है
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एक दिन मिट्टी में घर होगा मगर हम फिर भी
फूल बूटों से सज़ा करके हरम रक्खा है
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तुझको मालूम न हो जाए हक़ीक़त मेरी
इसलिए दिल में दबा करके अलम रक्खा है
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मयक़शी छोड़ के पीने से किया है तौबा
आज़ इक रिन्द ने मस्जिद में क़दम रक्खा है— गिरह
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जिन्दगी आज़ तो गुलज़ार हुई जब “प्रीतम”
मेरी माँ ने मेरे सिर दस्ते-करम रक्खा है
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प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)
08/08/2017