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21 Dec 2016 · 1 min read

आंसू कहाँ बहाने निकले

जनता को बहकाने निकले
नेता वोट जुटाने निकले

मंचों पर जब जंग छिड़ गयी
क्या क्या तो अफसाने निकले

नेता,अफसर,चमचों के घर,
नोट भरे तहखाने निकले

कहते थे घर-बार नहीं, पर
उनके बहुत ठिकाने निकले

जब गरीब को देना था कुछ
घुने हुए के दो दाने निकले

दिखी रौशनी कहीं शमा की
जलने को परवाने निकले

फैंक रहे थे मुझ पर पत्थर
सब जाने पहचाने निकले

ढूंढ रहे थे मंदिर मस्जिद
गली गली मयखाने निकले

अच्छे थे आँखों में आँसू
हम भी कहाँ बहाने निकले

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